लोकसभा चुनाव में भाजपा से मुकाबले के लिए कांग्रेस तैयार है, लेकिन पार्टी के दिग्गज नेता मुकाबले से पहले ही बाहर खड़े हो गए हैं, किसी ने उम्र का बहाना बना दिया है तो कोई कह रहा है कि नई पीढ़ी को मौका देना चाहिए. इन कद्दावर नेताओं में पार्टी के वे चेहरे शामिल हैं जो केंद्रीय राजनीति में बड़ा चेहरा माने जाते हैं और अपने-अपने क्षेत्रों में खासा दबदबा भी रखते हैं. यदि ये दिग्गज भाजपा के खिलाफ ताल ठोंकते तो बीजेपी को इन नेताओं का मुकाबला करने के लिए निश्चित तौर पर अतिरिक्त ताकत लगानी होती, चुनावी मैदान में जीत होती या हार, मगर इतना तय है कि मुकाबला रोचक होता.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी अपने नेताओं से लगातार कह रहे हैं कि डरो नहीं, लड़ो, मगर कांग्रेस के दिग्गज नेता इस बात को गंभीरता से नहीं ले रहे. कमलनाथ से लेकर दिग्विजय सिंह तक और गहलोत से लेकर सचिन पायलट सभी चुनाव लड़ने से इनकार कर चुके हैं. यह जानते हुए भी कि अगर वह जोर लगा जांए तो शायद अपनी परंपरागत सीट पर भाजपा को मात भी दे सकते हैं. अगर ऐसा न भी करें तो कम से कार्यकर्ताओं का हौंसला बढ़ेगा ओर भाजपा उम्मीदवार का मोरल डाउन होगा, मगर कांग्रेस के ये चेहरे बहाना बनाकर मुकाबले से पहले ही खुद को अलग खड़ा कर चुके हैं.
मल्लिकार्जुन खरगे
कांग्रेस के सबसे बड़े तुरुप के इक्के पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे हैं. खरगे को सोलिल्लादा सरदारा कहा जाता है. इसका मतलब होता है कभी न हारने वाला नेता, हैदराबाद कर्नाटक क्षेत्र में उनके राजनीतिक दबदबे की वजह से जनता ने उन्हें खुद इस नाम से नवाजा है. दरअसल यह क्षेत्र खरगे का गढ़ कहा जाता है. 2014 में जब देश में पीएम मोदी की लहर थी, तब भी वह गुलबर्गा सीट जीतने में सफल रहे थे, इससे पहले वह 2009 में पहली बार इस सीट से लोकसभा चुनाव जीते थे और केंद्रीय राजनीति में कदम रखा था. इससे पहले खरगे विधानसभा चुनाव लड़ते रहे और 1972 से 2008 तक लगातार गुरमित्कल सीट से विधायक चुने जाते रहे.
अपने राजनीतिक जीवन में खरगे सिर्फ एक ही चुनाव हारे जब 2019 में उन्हें भाजपा उम्मीदवार उमेश जाधव ने तकरीबन एक लाख मतों से हराया था. खरगे कांग्रेस के दिग्गज नेता हैं, वह चुनाव में जीतने का भी दम रखते हैं, लेकिन जब वह चुनाव ही नहीं लड़ेंगे तो राजनीति में दांव कैसे दिखा पाएंगे. दूसरा कांग्रेस के लिए चुनौती होगी कि आखिर गुलबर्गा सीट पर भाजपा के सामने वह ऐसे किस नेता को टिकट दे जो भाजपा के चुनावी चक्रव्यूह को भेद पाए.
अशोक गहलोत
अशोक गहलोत ने लोकसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया है. गहलोत कांग्रेस के दिग्गज नेता हैं, खास तौर से राजस्थान में उनकी अच्छी पकड़ है. राजस्थान से सटे गुजरात के इलाकों में भी गहलोत का अच्छा खास प्रभाव है. अशोक गहलोत छात्र जीवन से ही राजनीति में सक्रिय रहे. उनकी चुनावी राजनीति की शुरुआत लोकसभा चुनाव से ही हुई थी, अशोक गहलोत 1980 से लगातार 1989 जोधपुर सीट से सांसद रहे, इसके बाद 1991 से लेकर 1999 तक उन्होंने इस सीट का प्रतिनिधित्व किया.
इस बीच सिर्फ 1989 में जोधपुर सीट से भाजपा के जसवंत सिंह सांसदी का चुनाव जीत सके थे. हालांकि अशोक गहलोत के बाद इस सीट पर कांग्रेस सिर्फ एक बार 2009 में ही चुनाव जीत पाई थी. अब इस सीट से भाजपा के गजेंद्र सिंह शेखावत सांसद हैं. यानी गहलोत के बाद से ही इस सीट पर कांग्रेस का दबदबा खत्म हो गया. इसके बाद गहलोत ने किला बनाया सरदारपुरा विधानसभा सीट को और लगातार उस सीट से जीत हासिल करते रहे. अब अगर कांग्रेस गहलोत को चुनाव लड़ाती है और जोधपुर से ही वह चुनावी मैदान में उतरते हैं तो यहां मुकाबला एक बार फिर कांटे का हो जाएगा. गहलोत को मात देने के लिए भाजपा को यहां अतिरिक्त प्रयास भी करने पड़ सकते हैं, लेकिन वह उम्र का हवाला देकर चुनाव लड़ने से इनकार कर चुके हैं.
कमलनाथ
कमलनाथ कांग्रेस के कद्दावर नेता हैं और राजनीति में उनका दबदबा भी अच्छा खासा है. छिंदवाड़ा सीट कमलनाथ की परंपरागत सीट मानी जाती है, इस सीट पर कमलनाथ 1984 से लोकसभा चुनाव जीतते आ रहे हैं, 2014 वह आखिरी बार इस सीट पर चुनाव लड़े थे, इस बीच इस सीट पर भाजपा सिर्फ एक बार 1997 में ही चुनाव जीत सकी थी, 1996 में यहां से अलका नाथ चुनी गईं थी, वह भी कांग्रेस के टिकट ही चुनाव लड़ी थीं. 2019 में कमलनाथ ने यह सीट अपने पुत्र नकुलनाथ के हवाले कर दी.
वह चुनाव जीत भी गए. अब जब कमलनाथ के चुनाव लड़ने की बात की गई तो उन्होंने इनकार कर दिया. यदि मध्य प्रदेश के लिहाज से देखें तो कमलनाथ का खासा दबदबा है, यदि कमलनाथ छिंदवाड़ा के अलावा भी किसी सीट से चुनाव मैदान में उतरते तो निश्चित ही भाजपा के लिए एक और सीट पर मुश्किल खड़ी कर सकते थे. कमलनाथ के खिलाफ चुनाव जीतने के लिए भाजपा को कड़ी मशक्कत भी करनी पड़ सकती थी.
दिग्विजय सिंह
मध्य प्रदेश की राजनीति में दूसरा प्रमुख नाम दिग्विजय सिंह का है, 1969 में 22 साल की उम्र में अपनी राजनीतिक पारी शुरू करने वाले दिग्विजय सिंह बेशक 2019 का लोकसभा चुनाव हार गए थे, लेकिन एमपी की राजनीति में आज भी उनका दबदबा माना जाता है. खास तौर से राजगढ़ लोकसभा सीट और राधौगढ़ विधानसभा सीट उनकी परंपरागत सीट मानी जाती है, वह 1984 से लेकर 1994 तक राजगढ़ लोकसभा सीट से ही सांसद चुने गए थे, उसके बाद वह विधानसभा चुनाव में उतरे और राधौगढ़ विधानसभा सीट से विधायक रहे. 2014 में राज्यसभा चुनाव लड़ने से पहले दिग्विजय सिंह ने राजनीति से संन्यास का ऐलान कर दिया था.
2019 में वह भोपाल सीट से चुनाव में उतरे लेकिन भाजपा उम्मीदवार प्रज्ञा ठाकुर से उन्हें हार का सामना करना पड़ा. हालांकि दिग्विजय सिंह की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस चुनाव में भी दिग्विजय सिंह को 5 लाख से ज्यादा मत मिले थे. अब दिग्विजय सिंह चुनाव लड़ने से इनकार कर चुके हैं. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यदि दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश की किसी भी सीट से चुनाव लड़ते तो भाजपा को उस सीट जीतने के लिए एक्सट्रा जोर लगाना पड़ता.
सचिन पायलट
राजस्थान में अशोक गहलोत के बाद सबसे ज्यादा दबदबे वाले नेताओं के सचिन पायलट का नाम है, वह 2004 में पहली बार दौसा लोकसभा सीट से सांसद चुने गए थे, 2009 में भी उन्होंने इसी सीट से चुनाव लड़ा और जीत भी हासिल की. 2014 के लोकसभा चुनावों में मोदी लहर में वह भाजपा उम्मीदवार से चुनाव हार गए. इसके बाद से वह टोंक सीट से विधायक हैं. 2019 में जब उन्हें लोकसभा चुनाव लड़ाने की बात आई तो सचिन पायलट ने साफ तौर पर कह दिया कि जो देशभर में उनकी रैलियां लगाईं गईं हैं पहले उन्हें कम किया जाए, क्योंकि वह क्षेत्र पर फोकस करेंगे. आलाकमान इस पर तैयार भी हो गया कि ठीक है आप रैलियों पर फोकस करें. यदि सचिन पायलट जैसे कद्दावर नेता लोकसभा चुनाव लड़ते तो उनके समर्थकों का जोश भी दोगुना हो जाता और भाजपा उम्मीदवार को जीत के लिए मशक्कत करनी पड़ती, लेकिन अब शायद ऐसा न करना पड़े.