लोकसभा चुनाव चल रहे हैं। आम आदमी की आशा यही है कि जिसकी भी सरकार बने, स्थाई बने। 1986 से 1996 के दस साल तक जो राजनीतिक अस्थिरता लोगों ने देखी, उससे घबराकर ही वह बहुत बाद में ही सही, स्थिर सरकार को चुनना वापस सीख गया है।
86 से 96 के बीच के उन दस सालों में राष्ट्र- जीवन अकल्पनीय, अविश्वसनीय और अनिश्चित रहा था। कहना कठिन है कि सदी के उस अवसान काल में जारी रहे उस बिलौने से अमृत अधिक निकला या विष? यह भी कि इसे किसी संग्राम का अंत मानें या आरंभ?
समाज-जीवन का हर अंग इस आलोड़न- विलोडन से थरथराता रहा था। उन दस सालों में आत्मघाती जातिवाद, विभाजक संप्रदायवाद और लज्जाजनक भ्रष्टाचार, राजनीति की पहचान बन गया था। अर्थव्यवस्था भूमण्डलीकरण के भँवर में हिचकोले खाती रही। बाज़ारीकरण, उद्योग- व्यवसाय का ही नहीं अपितु कला, मनोरंजन, मनोविनोद और साहित्य जैसे जीवन के कोमल- सुंदर पहलुओं का भी मूलमंत्र बन गया था।
उदारीकरण की सद्इच्छाओं को घोटालों की बुरी नज़र लग गई थी। राजनीति के शिखर पुरुष लोगों के दिलों की बजाय सत्ता के दलालों की काली और वकीलों की लाल डायरी में जगह बनाने लगे थे। राजनीतिक- प्रशासनिक तंत्र अराजक हो उठा और सामाजिक ताने-बाने के तार-तार होने की नौबत आ चुकी थी।
उन दस वर्षों में चार आम चुनावों और पाँच प्रधानमंत्रियों के उत्थान-पतन के बावजूद राजनीतिक स्थिरता दूर की कौड़ी ही रही थी। कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा लाकर सत्ता के प्रासाद खड़े किए गए और बहुमत की नई परिभाषा गढ़ी गई। विडम्बना यह रही कि विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुआई में राजनीतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध छिड़ी जंग ने जातिवाद और क्षेत्रीयवाद की भूल- भुलैया में दम तोड़ दिया और 1990 के दशक में कदाचार सियासत का सिक्का बन गया।
पंजाब और कश्मीर में उग्रवादियों की बंदूक़ें भले ही ख़ामोश हो गई थीं, लेकिन नेताओं के सूटकेस नोट उगलने में पीछे नहीं रहे। राम रथ यात्रा और अयोध्या में ढांचा ध्वंस की थाती वाली पार्टी इस दशक में सत्ता की गंगोत्री तक पहुँचकर भी प्यासी रह गई थी।
विडम्बनाएं और भी थीं। मंडल की मार से लगभग दो-फाड़ हुए समाज के ज़ख़्मों पर पपड़ी जम भी नहीं पाई थी कि जातिगत विभाजन तीव्र हो उठा था। वंचितों की दमित इच्छाएँ प्रस्फुटित हुईं तो नए नेता उभरे, लेकिन वे इस जागृति को भी भुनाने पर उतर आए। नतीजा सामाजिक कटुता और अवरुद्ध विकास के रूप में सामने आया। आर्थिक उदारीकरण का लाभ ज़्यादातर राज्यों ने उठाया।
आतंकवाद के स्याह दौर में हज़ारों हत्याएं देखने और अरबों की संपत्ति का नुक़सान देखने वाला पंजाब विकास यात्रा पर निकल पड़ा था, लेकिन बिहार के कान में जूं नहीं रेंगी। 1992-93 में यहाँ की प्रति व्यक्ति आय भी 1100 रु. से घटकर 1081 रुपए रह गई थी।
यही वजह है कि देश का आम आदमी अब अस्थिर नहीं बल्कि स्थिर सरकार चाहता है। चाहे वो किसी भी दल की हो!