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जात न पूछो दाल-भात की,नाम नहीं, भोजन को परखो

जहां सभी धर्म के लोग मिलजुल कर रहते हैं। जिसे हम गंगा- जामुनी तहज़ीब की धरती कहते और मानते हैं, वहाँ ये दुकान के आगे नाम लिखने, एक तरह से नाम लिखकर अपना धर्म बताने की ये कौन सी परम्परा चल पड़ी है?

हैरत की बात यह है कि इस देश में ऐसे काम भी सरकारों के नाम पर किए जा रहे हैं। चाहे यह काम कोई प्रशासन या प्रशासनिक अफ़सर करे, कोई पुलिस अफ़सर करे या सरकार का कोई नुमाइंदा ही क्यों न करे, लेकिन सरकारें क्यों चुप बैठी रहती हैं?

इन सरकारों में तो जनता के चुने हुए नुमाइंदे बैठे रहते हैं जिन्हें हर धर्म, हर जाति का व्यक्ति वोट देता है और ख़ुशी- ख़ुशी अपना प्रतिनिधि चुनता है। तभी तो वह जनप्रतिनिधि कहा जाता है। वह किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि नहीं होता।

आख़िर क्यों सरकारें संविधान की अनदेखी करके देश के लिए अनचाहे फ़ैसले होने देती हैं? क्यों सरकारों के फ़ैसलों को दुरुस्त करने के लिए हमेशा कोर्ट, हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ता है।

क्यों इस तरह के फ़ैसले लेने या होने देने से पहले सरकारों को कोर्ट का, क़ानून का या संविधान का डर नहीं लगता? ख़ैर देर आए, दुरुस्त आए और सरकार या किसी अफ़सर के आदेश को आख़िरकार सुप्रीम कोर्ट ने ठीक कर दिया और एकदम सही फ़ैसला सुनाया।

सही मायने में न्याय किया। जिस आदेश में कांवड़ियों की यात्रा के मद्देनज़र उस रास्ते में आने वाले हर दुकानदार को अपना नाम लिखने पर बाध्य किया जा रहा था, उस आदेश को रोकते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नाम ज़ाहिर करने की कोई ज़रूरत नहीं है। केवल यह ज़ाहिर करने की ज़रूरत है कि उस दुकान या होटल में जो भोजन या खाद्य सामग्री है, वह शाकाहारी है या मांसाहारी।

आखिर न्याय हो गया। गंगा- जामुनी तहज़ीब बच गई। राज्य सरकारों को धर्म आधारित विवादों को इतना नहीं बढ़ाना चाहिए कि प्रशासन या पुलिस के आला अफ़सर प्रमोशन पाने, सरकार के हितैषी कहलाने या सरकार की नज़र में आने के लिए इस तरह के ऊल- जलूल आदेश देते फिरें जिससे देश में नए विवाद पैदा हों और गाँव, क़स्बों तथा शहरों की शांति भंग होने का ख़तरा पैदा हो जाए।

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